
पांच नदियों का संगम
नदियां खुद ही अपने रास्ते बनाते हुए आगे बढ़ती हैं और जो कुछ भी इनके रास्ते में आता है, ये उसे अपने साथ ले लेती हैं. आज हम आपको एक ऐसी जगह के बारे में बता रहे हैं, जहां पूरी पांच नदियों का संगम होता है.

पूरी दुनिया में नदियों किसी भी देश को हरा-भरा रखने में अहम योगदान देती हैं. भारत में तो नदियों को पूजा जाता है. दुनिया की ज्यादातर मानव सभ्यताओं का विकास भी नदियों के किनारे ही हुआ है. समंदर में मिलने से पहले कई जगहें ऐसी हैं, जहां पर दो या उससे ज्यादा नदियां एक-दूसरे में मिलती हैं.
भारत के प्रयागराज में 3 बड़ी नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम होता है. इसी तरह आज जानिए दुनिया एकमात्र ऐसे स्थान के बारे में, जहां दो या तीन नहीं, बल्कि पांच नदियां एक-दूसरे में आकर में मिलती हैं. प्रयागराज में तीन नदियों का मिलन होता है. इस त्रिवेणी संगम को तीर्थराज भी कहा जाता है. सनातनियों के लिए यह महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है.
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यहां होता है पांच नदियों का संगम
भारत में एक ऐसी जगह भी मौजूद है, जहां पूरी पांच नदियों का मिलन होता है. इस जगह पंचनद कहलाती है. पंचनद उत्तर प्रदेश के जालौन और इटावा की बॉर्डर पर स्थित है. इस जगह को देखने पर यही लगता है मानो धरतीवासियों के लिए यह प्रकृति का अनोखा उपहार है, क्योंकि ऐसा संगम शायद की कहीं और देखने के मिलेगा.
पंचनद में इन पांच नदियों का होता है संगम
कहा जाता है कि यह दुनिया की इकलौती ऐसी जगह है जहां पांच नदियों का संगम होता है. पंचनद में यमुना, चंबल, सिंध, क्वांरी और पहुज नदियां आकर एक-दूसरे से मिलती है. पंचनद को महातीर्थराज भी कहा जाता है. यहां हर साल श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है. शाम होते ही यहां बहुत ही खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है.

पंचनद कि कहानियां
पंचनद के बारे में कई प्राचीन कहानियां बताई जाती हैं, लेकिन महाभारत काल की कहानी ऐसी है जिसकी प्रसिद्धि बहुत ऊंची है. बताया जाता है कि महाभारत काल में पांडव भ्रमण के दौरान पंचनद के पास ही रुके थे. भीम ने इसी जगह पर बकासुर नाम के दैत्य का अंत किया था.
स्थानीय लोगों की मान्यता
इसके अलावा एक और प्रसिद्ध कहानी इस स्थान से जुड़ी है. यहां के लोग मानते हैं कि यहां के महर्षि मुचकुंद की यशस्वी कथा सुनकर एक बार तुलसीदास जी ने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया. तुलसीदास जी ने पचनद की ओर अपना पदयात्रा शुरू की और पानी पीने के लिए आवाज बुलंद की. इस पर महर्षि मुचकुंद ने अपने कमंडल से जो जल छोड़ा, वह कभी नहीं खत्म हुआ और तुलसीदास जी को ऋषि मुचकुंद के महत्त्व को स्वीकार करना पड़ा और उनके सामने नतमस्तक हो जाना पड़ा.
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